हरदोई के अल्लीपुर टंडवा में हकीकत में दुल्हन 'घोड़ी चढ़' बारात लेकर ससुराल जाती है। द्वार पूजन और आंगन में मंडप सजता है और शादी की सारी रस्में निभाई जाती हैं। पूरे कार्यक्रम में दूल्हा और दुल्हन पक्ष के लोग साथ-साथ रहते हैं। पहले दुल्हन को ससुराल से मायके विदा किया जाता है और फिर दूल्हा उसे मायके से ससुराल विदा कराने जाता है।
हरदोई से सिर्फ 70 किमी दूर संडीला व बांगरमऊ मार्ग पर इस गांव के कनौजिया, दिवाकर, विमल बिरादरी में चली आ रही इस परंपरा में ऐसा ही होता है। भावरें भी पड़ती हैं और रस्मो रिवाज भी निभाए जाते हैं पर अंदाज जुदा है। मुन्ना, जियालाल, कल्लू, सुधीर ने बताया कि शादी के दिन दुल्हन परिवार व नाते रिश्तेदारों के साथ बरात लेकर ससुराल जाती है। दूल्हे के आंगन में ही खंभ पूजन कर मंडप सजाया जाता है। जनवासे से दुल्हन अपने परिवार के साथ मंडप में जाती है और फिर वहीं अग्नि को साक्षी मान दूल्हे के साथ सात फेरे लेती है। पैर पूजन, कन्या दान जैसी रस्मों के बाद वह सास-ननद के बीच रहती है और अगले दिन सुबह दूल्हे के घर पर ही कलेवा होता है। शाम को दुल्हन के ससुरालीजन उसे मायके के लिए विदा करते हैं। अगले दिन दूल्हा अपने परिवार व रिश्तेदारों के साथ ससुराल जाता है। अगले दिन दुल्हन को ससुराल विदा करा ले जाते हैं।
यह अनूठी परंपरा कब, किसने और कैसे शुरू हुई इसकी तो किसी को जानकारी नहीं है। बुजुर्ग रामआसरे का कहना है कि उनके पूर्वज बताते थे कि गांव में कभी बहुत गरीबी थी। किसी तरह गुजर बसर होती थी। बेटी की शादी में अधिक खर्च न हो, इसके लिए लोग बेटी को लेकर उसकी ससुराल में ही शादी करने चले जाते थे। यह मजबूरी धीरे-धीरे परंपरा बन गई। आज सब साधन संपन्न हैं। लोग विदेश तक में काम करते हैं लेकिन यह परंपरा अब भी कायम है। आज भी लोग धूमधाम से इस परम्परा का निर्वाह करते हैं।
हाल में ही शादी के इस अनूठे बंधन में बंधी राधिका, रामबेटी, मुन्नी, रजनी और मनोहर का कहना है कि इस परंपरा में फेरे लेने के पहले ही दूल्हा-दुल्हन एक दूसरे को परिवारीजन को समझ लेते हैं जिससे भविष्य में कोई परेशानी नहीं होती। हमेशा ही उनका रिश्ता मजबूत रहता है।
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